मित्रता - अनमोल धन
जीवन में मित्रों की बड्री आवश्यकता होती है। प्राय: देखने में आता है कि मौज-मस्ती के लिए तो बहुत से दोस्त आ जाते हैं, पर दुख को घडी में , कितने मित्रता की कसौटी पर खरे उतर पात्ते हैँ, यह देखने की बात है।
मित्र कें अनेक कर्त्तव्य हौते हैँ जिनमें से केबल कुछ प्रमुख कर्तव्यों पर नीचे बिचार किया जाएगा। एक सच्चा मित्र सदैव अपने साथी को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। वह कभी नहीं देख सकता है कि उसकी आँखों के सामने ही उसके मित्र का घर बर्बाद होता रहे, उसका साथी पतन के पथ पर अग्रसर होता रहे, कुबासनाएँ और दुर्व्यम्ननं उसे अपना शिकार बनाते रहैं, कुरीतियाँ उसका शोषण करती रहें, क्रुविचार उसे क्रुमार्गगामी बनाते रहैं। वह उसे समझा-बुझाकर, लाड़-प्यार से और फिर , मार से किसी न किसी तरह उसे कुमार्ग को छोड़ने के लिए विवश कर देगा। तुलसीदास ने सच्चे मित्र की पहचान बताई है-
"कुंपथ निवारि सुपंथ चलाबा।
गुण प्रगटहि अवगुणहि द्रुरावा।।"
तात्पर्य यह है कि हम झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं या इसी प्रकार की और बुरी आदतें हैं. तो एक श्रेष्ठ मित्र का कर्तव्य है कि वह हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, हमें अपने दोषों के प्रति जागरूक कर दे तथा उनको दूर करने का निरंतर प्रयास करता रहे।
जब मनुष्य के ऊपर बिपस्ति के काले जादलं घनीभूत अंधकार के समान छा जाते हैँ और चारों दिशाओ मॅ निराशा के अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता तब केवल सच्चा मित्र ही एक आशा ही किरण के रूप में सामने आता है। तन से, मन से , धन से वह मित्र क्री सहायता करता है और बिपस्ति के गहन गर्त में डूबते हुए अपने मित्र को निकाल कर बाहर ले आता है। रहीम ने लिखा है…
"रहिमन सोई मीत हैं, भीर परे ठहराइ।
मथत मथत माखन रहे , दही मही बिलगाइ।।"
मित्रता होनी चाहिए मीन और नीर जैसी। सरोवर मैं जब तक जल रहा; मछलियाँ भी क्रीड़ा तथा मनोविनोद करती रहीं, परंतु जैसै-जैरनै तालाब के पानी पर विपस्ति आनी आरंभ हुईं; मछलियाँ उदास रहने लगों, जल का अंत तक साथ दिया। उसके साथ संघर्ष मैं रत रहीं, परंतु जब मित्र न रहा, तो स्वयं भी अपने प्राण त्याग दिए, परंतु अपने साथी जल का अंत का विपत्ति में भी साथ न छोड़ा।
रहीम के अनुसार मित्रता दूध और जल र्का-सौ नहीं होनी चाहिए कि दूध पर विपस्ति आई और वह जलने लगा तो मानो अपना एक और को किनारा कर गया , अर्थात् भाप बनकर भाग गया, बेचारा अकेला दूध अतिम क्षण तक जलता रहा। स्वार्थी मित्र सदैव बिश्वग्रसघात करता है; उसकी मित्रता सदैव पुष्प और भ्रमर जैसी होती है। भंवरा जिस तरह रस रहते हुए फूल का साथी बना रहता है और इसके अभाव मैं उसकी बात भी नहीं पूछता। इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी विपस्ति के क्षणों में मित्र का सहायक सिंदूध नहीं होता। इसलिए तुलसीदास जी ने अच्छे मित्र की कसौटी विपस्ति ही बताई है.
"धीरत धर्म मित्र अरु नारी।
आपतू काल परखिए चारी।।
जे न मित्र दुख हींहि बुखारी।
तिनहि बिलोकत पातक भारी।।"
इसलिए संस्कृत मैं कहा गया है कि " आपदगतं च न जहाति ददाति काले" अर्थात् विपस्ति के समय सच्चा मित्र साथ नहीं छोडता. अपितु सहायता के रूप में कुछ देता ही है। जिस प्रकार स्वर्ण कौ परीक्षा सर्वप्रथम कसौटी पर घिसने से होती हैउसी प्रकार मित्र की विपरित के समय त्याग से होती है। इतिहास साक्षी है कि ऐसै मित्र हुए हैँ, जिन्होंने अपने मित्र कौ रक्षा में अपने प्राणों की भी आहुति दे दी।
मित्र का कर्तव्य है कि वह अपने मित्र के गुणों को प्रकाशित करे जिससे कि मित्र का समाज में मान और प्रतिष्ठा बहै! सच्चा मित्र अपने मित्र के मान को अपना ही मान समझता है, उसकी प्रतिष्ठा और ख्याति को अपनी प्रतिष्ठा और ख्यमृति समझता है। इसीलिए वह अपने मित्र के गुणों को गान करता है और अवगुणों को छुपाने का प्रयत्न करता है। साथ ही उन अवगुणों को दूर करने का भी प्रयास करता है।

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