दहेज प्रथा : एक सामाजिक कलंक
समय में प्रत्येक प्रथा का सूत्रपात किसी अच्छे उदूदेश्य को लेकर ही होता है, परंतु कालांतर में यै प्रथाएँ एक ऐसी रूढि बन जाती हैं कि उससे मुदित पाना सहज नहीं होता। साथ ही उस प्रथा से समाज में बुराइयाँ भी पैदा होने लगती हैं। दहेज प्रथा भी आजकल एक ऐसी रूढि बन गई है जिसने हर उस मनुष्य का चैन छीन लिया हैं, जो एक विवाह योग्य कन्या का पिता है। इस कुप्रथा के कारण विवाह जैसा महत्त्वपूर्ण एवं पवित्र संस्कार "वर को ख़रीदने एवं बेचने कौ मंडी" बन गया है। यह एक ऐसी विष बेल है, जिसने पारिवारिक जीवन को उजाड़ कर रख दिया हैं। आजकल कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन समाचार-पत्रों में दहेज के कारण किसी नवयुवती की मृत्यु या उसके ऊपर अत्याचार के समाचार पढ़ने को न मिलते हों। आजकल यह प्रथा एक अभिशाप बन गई है।
दहेज प्रथा भारतीय समाज पर एक बहुत बड़ा कलंक है। इसने भारतीय समाज को घुन खाई लकडी के समान अशक्त कर दिया हैं। यह एक ऐसे दैत्य का स्वरूप ग्रहण कर चुका है, जो पारिवारिक जीवन को देखते-ही-देखते विषाक्त कर डालता है। इसने हजारो नारियों को घर छोड़ने पर विवश किया है। हजारों नारियाँ इसकी बलिवेदी पर अपने प्राण दे चुकी हैं। समाज सुघारको के प्रयत्वों के बावजूद दहेज प्रथा ने अत्यंत विकट रूप धारण कर लिया है। इसका विकृत रूप मानव समाज को भीतर से खोखला कर रहा है।
यह कुप्रथा समाज तथा कन्या के मरता-पिता के लिए सबले बडा अभिशाप सिदृध हो रहो है। एक लडकी के विवाह कै लिए सामान्यत: मध्यवर्गीय व्यक्ति को अपनी सामर्ध्व से अधिक रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं। इसलिए विवश होकर उसे या तो ऋण की शरण लेनी पड़ती है या रिश्वत आदि अनुचित साधनों सै वह धन की व्यवस्था करता है। ऋण लेकर विवाह करने पर कमी-कभी उसका समस्त जीवन ऋण चुकाने में निकल जाता है। दहेज कौ समस्या के कारण अपने माता-पिता की दयनीय दशा देखकर कभी-कथी कन्याएँ इतनी निराश और दुखी हौ जाती हैं कि अपना विवेक खोकर आत्महत्या तक कर लेती हैं। वे सोचती हैँ कि अपने माता-पिता की शोचनीय क्शा का कारण वे ही हैँ इसलिए न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी की लोकोक्ति को चरितार्थ करती हुई वै अपना जीवन ही समाप्त कर लेती हैं।
दहेज लोभी व्यक्ति केवल विवाह के अवसर पर मिले दहेज को पाकर ही संतुष्ट नहीं होते बल्कि विवाह के बाद मौ कन्या यक्ष से उनकी माँगे" बराबर बनी रहती हैं और अपनी इन अनुचित माँगों की पूर्ति का साधन वे इन विवाहित कन्याओँ (वधुओं) को ही बनाते हैं। इन माँगों के पूरा न होने की स्थिति में वे नववधुको शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ देते हैं।
मूखा रखना, वात-जात पर कटूक्तियाँ कहना , मारना-पीटना, अंगमंग कर देना आबि तरीकों सै ये नवविवाहिता को अपने माता-पिता से दहेज लाने को विवश करते हैं। यदि इतने पर भी वै और दहेज नहीं ला पाती हैं, तो उन्हे' जिदा जला दिया जाता है या हमेशा के लिए पिता के ही घर में रहने के लिए त्याग दिया जाता है।
अब ज्वलंत प्रश्च यह है कि इस सामाजिक र्काढ़ को कैसे समाप्त किया जाए 2 इसके लिए व्यापक रूप से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि ऊपरी तौर पर इस कुप्रथा का कोई मी पक्षधर नहीं हैं, परंतु अवसर मिलने पर लोग दहेज लेने से नही चूकते। इसको दूर करने के लिए सत्कार ने दहेज विरोधी कानून बना दिया है। दहेज के स'दर्भ मॅ नवविवाहिताओँ की मृत्यु संबंधी मामलों में न्यायाधीशों ने नववधुओं के पति, सास-ससुर आदि को मृत्युदंड देकर इस कुप्रथा को समाप्त करने कौ दिशा मैं प्रशंसनीय प्रयास किया हैं, परंतु यह कुप्रथा सुस्सा के मुख की र्मोंति चढती जा रही है। इसके विरोध मैं व्यापक जनचेतना जाग्रत करने की आवश्यकता है। सरकार के साथ-साथ समाजसेवी संस्थाएँ तथा समाजसेवा में रुचि रखने वाले लोग इस प्रथा के विरुदध जागृति उत्पन करने तथा रोकने के कडे उपाय मी करें , तो इससे छुटकारा माया जा सकता है।
इस प्रथा के विरोध में देश के अनेक धामों में महिलाओँ के संगठन उठ खहं हुए हैं। दहेज के कारण जहाँ कहीँ मी उल्पीड़न की घटना को सूचना इनको मिलती है, मे उसका प्रतिरोध करने के लिए पहुँच जाते हैं। इनके प्रतिरोध के रूप. समय और स्थान के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इस प्रकार इस सामाजिक बुराई को रोकने में इनसे काफी मदद मिली है।
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